भारतवंश में एक “कुरु” नाम के अत्यंत कृपालु राजा राज्य किया करते थे। वह स्वयं भूमि को जोता करते थे। एक बार देवराज इन्द्र आकाश मार्ग से कुरुक्षेत्र के ऊपर से गुजर रहे थे। तभी राजा कुरु को खेत जोतता देख इन्द्र उनके पास जाते है और पूछते है- “आप इतना परिश्रम करके भूमि को क्यों जोत रहे है?” आप तो इस क्षेत्र के राजा है और राजा का कार्य राज करना होता है न की श्रम करना।
जवाब में राजा कुरु ने विनम्रता पूर्वक कहा- “मैं चाहता हूँ इस स्थान में जो भी व्यक्ति प्राण त्यागे वह पुण्य लोक में ही जाये।” यह सुनकर इन्द्र देव हंसने लगते है और वहाँ से प्रस्थान कर लेते है। जब यह सारी बात इन्द्रदेव इंद्रलोक में जाकर अन्य देवताओं को बताते हुए राजा कुरु का उपहास करते है। तो सभा में उपस्थित अन्य देवगण इन्द्रदेव को समझाते हुए कहते है- राजा कुरु अत्यंत दयालु और ईश्वर भक्त राजा है। वह राजा और प्रजा में किसी प्रकार का अंतर नहीं समझते अर्थात एक समान मानते है। अतः हमे उनका उपहास नहीं करना चाहिए, यदि संभव होतो हमे राजा कुरु को अपने पक्ष में कर लेना उचित रहेगा।
अन्य देवताओं की सलाह से देवराज इन्द्र पुनः उसी स्थान में जाते है जहां राजा कुरु खेत जोत रहे थे और राजा कुरु को वरदान दे देते है। जो भी पशु, पक्षी या मनुष्य इस स्थान में निराहार रहकर या युद्ध में मृत्यु को प्राप्त होगा वह स्वर्ग का भागी होगा।
यह बात कृष्ण, भीष्म, कौरव, पांडव आदि सभी भली प्रकार से जानते थे इसलिए महाभारत युद्ध के लिए कुरुक्षेत्र का ही चयन किया गया था। राजा कुरु के इस क्षेत्र को जोतने के कारण इसका नाम कुरुक्षेत्र पड़ा था। एक अन्य मान्यता के अनुसार इस क्षेत्र में कुरु की खेती की जाती थी इसलिए इस क्षेत्र का नाम कुरुक्षेत्र पड़ा।
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